Dr. B.R. Ambedkar Biography in Hindi – जीवन परिचय और संघर्षों की कहानी

📖 डॉ. भीमराव अंबेडकर: एक क्रांतिकारी जीवन की संपूर्ण जीवनी

Dr. B.R. Ambedkar

🔶 प्रारंभिक जीवन और जाति व्यवस्था का सामना (1891-1909)

डॉ. भीमराव अंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 को ब्रिटिश भारत के मध्य प्रदेश राज्य के महू नामक स्थान पर हुआ था, जो उस समय एक सैन्य छावनी थी। वे एक दलित (महार) जाति में जन्मे थे, जिसे उस युग में ‘अछूत’ माना जाता था। उनके पिता रामजी मालोजी सकपाल ब्रिटिश भारतीय सेना में सूबेदार के पद पर कार्यरत थे। यद्यपि वे स्वयं शिक्षित और अनुशासित थे, परंतु जिस जाति में उनका जन्म हुआ था, उस कारण पूरे परिवार को सामाजिक भेदभाव और अपमान का सामना करना पड़ता था। डॉ. अंबेडकर का मूल नाम भीमराव सकपाल था, लेकिन बाद में उनके शिक्षक द्वारा 'अंबेडकर' उपनाम दिया गया, जो उनके परिवार का पुश्तैनी नाम नहीं था।

भीमराव का बचपन सामान्य बालकों जैसा नहीं था। विद्यालय में प्रवेश तो उन्हें मिल गया, परंतु कक्षा में उन्हें अन्य विद्यार्थियों से अलग पीछे बैठने को कहा जाता था। उन्हें स्कूल में पानी पीने की अनुमति नहीं थी; केवल उच्च जाति का कोई लड़का या अध्यापक ही उन्हें ऊपर से पानी गिरा सकता था। कभी-कभी तो पूरे दिन बिना पानी के गुजारना पड़ता था। ये घटनाएं न केवल उनके शारीरिक जीवन को प्रभावित करती थीं, बल्कि बाल मन पर गहरा मानसिक आघात भी करती थीं। उस समय के समाज में जातिगत भेदभाव इस कदर गहराया हुआ था कि एक होनहार बालक भी अपनी योग्यता और समझ के बावजूद केवल जन्म के आधार पर अपमानित किया जाता था।

जब वे लगभग तीन वर्ष के थे, तभी उनके पिता सेवानिवृत्त हो गए। परिवार को महू से स्थानांतरित होकर महाराष्ट्र के सतारा जिले में आना पड़ा। सतारा में उनका जीवन पहले से भी अधिक कठिन था। सेना की सुसंस्कृत छावनी से निकलकर वे एक ऐसे सामाजिक वातावरण में आ गए थे जहाँ हर कदम पर जातिगत तिरस्कार और दमन उन्हें घेरे रहता था। इस दौरान भीमराव की माता भीमाबाई का निधन हो गया। वे उस समय केवल पाँच वर्ष के थे। माँ के चले जाने से उनका बचपन और अधिक कष्टकारी हो गया। अब उन्हें माता के स्नेह और देखभाल से भी वंचित रहना पड़ा। पिता रामजी ने अपनी ओर से पूरी कोशिश की कि बच्चों को अच्छे संस्कार और शिक्षा मिल सके, परंतु सामाजिक बहिष्कार ने इस राह को कांटों से भर दिया।

इन कठिन परिस्थितियों में भी भीमराव का अध्ययन के प्रति अनुराग कम नहीं हुआ। वे पढ़ाई में अत्यंत मेधावी थे। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि उन्होंने अपने संघर्षों को कभी रुकावट नहीं बनने दिया, बल्कि उन्हें अपने लक्ष्य की सीढ़ी बना लिया। कुछ समय बाद उनके बड़े भाई बालाराम को मुंबई (तब की बॉम्बे) में नौकरी मिल गई, जिसके कारण परिवार का एक हिस्सा वहां चला गया। फिर भीमराव को भी बॉम्बे ले जाया गया, जहाँ उन्होंने एलफिंस्टन स्कूल में दाखिला लिया — यह स्कूल उच्च शिक्षित लोगों के लिए जाना जाता था, और यहाँ अछूत बच्चों का नामांकन लगभग असंभव माना जाता था। लेकिन भीमराव ने यह कर दिखाया।

🔸 भीमराव अंबेडकर का विवाह: बचपन के कंधों पर बड़ों की जिम्मेदारी

सतारा में जीवन के कठिन दौर के दौरान, जहाँ एक ओर शिक्षा और जातिवाद के बीच संघर्ष चल रहा था, वहीं भीमराव के जीवन में एक और बड़ा मोड़ आया — विवाह।

सन 1906 में, जब वे मात्र 15 वर्ष के थे, उनका विवाह रामाबाई नामक कन्या से कर दिया गया। रामाबाई भी एक बेहद साधारण, निर्धन, लेकिन सरल और सहनशील स्वभाव की लड़की थीं, जो तमाम पारिवारिक और सामाजिक सीमाओं के बावजूद एक समर्पित पत्नी बनकर उनके जीवन में आईं।

Ramabai

यह विवाह उस समय की सामाजिक परंपराओं के अनुरूप था, जहाँ लड़कों की शादी किशोरावस्था में ही कर दी जाती थी। लेकिन अंबेडकर की यह शादी साधारण नहीं थी — क्योंकि उनके जीवन की राह साधारण नहीं थी।

विवाह के समय भीमराव एक विद्यार्थी थे, और शिक्षा उनकी प्राथमिकता थी। ऐसे में रामाबाई का जीवन त्याग और सहनशीलता की प्रतिमूर्ति बन गया। उन्होंने न केवल एक युवा छात्र के जीवन में पत्नी का दायित्व निभाया, बल्कि अंबेडकर के बाद के संघर्षमय दिनों में भी धैर्य और स्नेह से उनके लक्ष्य में सहारा दिया।

डॉ. अंबेडकर ने अपनी आत्मकथा जैसी पुस्तकों और भाषणों में कई बार रामाबाई का उल्लेख करते हुए यह स्वीकार किया कि यदि वह जीवन में कुछ बन सके, तो उसमें रामाबाई के संयम और मौन बलिदान का अत्यंत बड़ा योगदान है।

रामाबाई का जीवन बहुत सादा था। उन्होंने कभी सामाजिक मंच पर खड़े होकर बात नहीं की, न ही आंदोलन में भाग लिया — लेकिन भीमराव के पीछे वह चुपचाप एक नींव की तरह खड़ी रहीं, जिस पर भारत का एक बड़ा विचारक खड़ा हो पाया। 

सन् 1907 में उन्होंने मैट्रिक (10वीं) परीक्षा सफलतापूर्वक उत्तीर्ण की, जो किसी भी महार जाति के व्यक्ति के लिए एक ऐतिहासिक उपलब्धि थी। इसी दौरान उन्हें बड़ौदा राज्य की ओर से छात्रवृत्ति प्राप्त हुई, जिससे उन्होंने आगे की शिक्षा के लिए प्रेरणा और साधन दोनों प्राप्त किए।

यह पूरा प्रारंभिक काल डॉ. अंबेडकर के जीवन का सबसे कठिन और निर्णायक काल था। सामाजिक बहिष्कार, आर्थिक तंगी, पारिवारिक आघात — इन सभी विपरीत परिस्थितियों के बीच एक बालक बिना किसी क्रांति का नारा लगाए, भीतर ही भीतर एक क्रांति का बीज बो रहा था। इसी दौर ने उनके भीतर वह चेतना विकसित की जो उन्हें आगे चलकर भारत का संविधान निर्माता और सामाजिक न्याय का अग्रदूत बनने के लिए तैयार कर रही थी।

🔶 उच्च शिक्षा की शुरुआत और विदेश यात्रा (1910-1923)

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1907 में अंबेडकर ने मैट्रिक की परीक्षा पास की, जो कि उनके समाज के लिए एक असाधारण घटना थी। आगे की पढ़ाई के लिए उन्हें बड़ौदा राज्य की छात्रवृत्ति मिली, जिसके ज़रिए वे 1913 में कोलंबिया विश्वविद्यालय (न्यूयॉर्क) पहुँचे। वहाँ उन्होंने अर्थशास्त्र, राजनीति विज्ञान और समाजशास्त्र में गहराई से अध्ययन किया। उनके विचारों को पश्चिमी लोकतांत्रिक सिद्धांतों ने दिशा दी, विशेषतः समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व की अवधारणाओं ने।

1916 में उन्होंने एक प्रसिद्ध शोधपत्र लिखा – “Castes in India: Their Mechanism, Genesis and Development”, जिसमें उन्होंने बताया कि जाति व्यवस्था कैसे धीरे-धीरे समाज में जड़ें जमाती है और यह मानवता के लिए कितनी हानिकारक है।

इसके बाद वे लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स और ग्रेज़ इन से कानून और अर्थशास्त्र की शिक्षा प्राप्त करने के लिए लंदन गए। हालांकि छात्रवृत्ति की अवधि समाप्त हो जाने के कारण वे बीच में भारत लौट आए।

🔶 भारत लौटने के बाद सामाजिक जागरण का आरंभ (1924-1930)

विदेशी शिक्षा पूरी करने के बाद जब अंबेडकर भारत लौटे, तो उन्हें लगा कि अब उनकी शिक्षा से उन्हें सामाजिक सम्मान मिलेगा, लेकिन यहाँ भी जातीय व्यवस्था का तंत्र उतना ही कठोर और अडिग था। बड़ौदा राज्य में नौकरी के दौरान जब अधिकारियों को पता चला कि वे महार जाति से हैं, तो उन्हें पानी तक देने से इनकार कर दिया गया। एक उच्च शिक्षित व्यक्ति होते हुए भी उन्हें समाज ने तिरस्कार की दृष्टि से देखा।

इस अपमान ने उनके भीतर संगठन और आंदोलन की ज्वाला जगा दी। उन्होंने 1924 में 'बहिष्कृत हितकारिणी सभा' की स्थापना की, जिसका उद्देश्य दलितों को शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक अधिकार दिलाना था।

1927 में महाड में चवदार तालाब सत्याग्रह हुआ, जिसमें उन्होंने घोषणा की कि अछूतों को सार्वजनिक जलस्रोतों का अधिकार है। यह भारत में पहला बड़ा दलित अधिकार आंदोलन था। उसी वर्ष उन्होंने मनुस्मृति का दहन किया, जो कि जातिवाद का धार्मिक स्रोत मानी जाती थी।

🔶 राजनीतिक संघर्ष और पूना पैक्ट (1931-1940)

1930 में डॉ. अंबेडकर को ब्रिटिश सरकार ने गोलमेज सम्मेलन में निमंत्रित किया, जहाँ उन्होंने भारत के अछूत वर्ग का प्रतिनिधित्व किया। उनका तर्क था कि अछूत समाज को हिंदू समाज से अलग राजनीतिक पहचान मिलनी चाहिए, क्योंकि सदियों से उन्हें उनके ही धर्म में समान अधिकार नहीं मिला।

ब्रिटिश सरकार ने जब 'अलग निर्वाचक मंडल' (Separate Electorate) की बात मानी, तो गांधी जी ने इसका विरोध किया और अनशन पर बैठ गए। इससे सामाजिक और राजनीतिक विवाद खड़ा हुआ।

डॉ. अंबेडकर ने गांधी जी से चर्चा के बाद 1932 में 'पूना पैक्ट' पर सहमति दी, जिसमें दलितों को आरक्षित सीटें तो मिलीं लेकिन अलग निर्वाचक मंडल नहीं। अंबेडकर यह समझते थे कि यह उनकी राजनीतिक हार थी, लेकिन उन्होंने सामाजिक सौहार्द और व्यावहारिक राजनीति के लिए समझौता किया।

🔶 संविधान निर्माण और कानून मंत्री के रूप में योगदान (1941-1950)

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भारत की स्वतंत्रता के बाद जब संविधान निर्माण की प्रक्रिया शुरू हुई, तब डॉ. अंबेडकर को संविधान सभा की ड्राफ्टिंग कमेटी का चेयरमैन नियुक्त किया गया। उन्होंने भारतीय संविधान की रचना में जो योगदान दिया, वह भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में अमर है।

उन्होंने संविधान में समानता का अधिकार, अस्पृश्यता उन्मूलन, धार्मिक स्वतंत्रता, शिक्षा और संपत्ति के अधिकार जैसे प्रावधान जोड़े। भारत का संविधान विश्व का सबसे बड़ा लिखित संविधान है, और इसकी आत्मा अंबेडकर के विचारों में बसती है।

हालांकि, जब उनका प्रस्तावित हिंदू कोड बिल संसद में पास नहीं हुआ, जो महिलाओं को बराबरी का अधिकार दिलाता, तो उन्होंने 1951 में कानून मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया। यह उनका फिर से त्याग और सिद्धांतों के लिए संघर्ष था।

🔶 बौद्ध धर्म की ओर झुकाव और अंतिम संघर्ष (1951-1956)

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अपने जीवन के अंतिम वर्षों में अंबेडकर ने यह महसूस किया कि हिंदू धर्म में समानता असंभव है। उन्होंने बौद्ध धर्म का गहन अध्ययन किया और उसे अहिंसा, करुणा, और समानता का धर्म माना।

14 अक्टूबर 1956 को, नागपुर में उन्होंने बौद्ध धर्म की दीक्षा ली और उनके साथ 5 लाख लोगों ने बौद्ध धर्म अपना लिया। यह एक ऐतिहासिक पल था – न केवल धर्म परिवर्तन का, बल्कि सामाजिक क्रांति का।

इससे कुछ समय पहले उन्होंने “The Buddha and His Dhamma” नामक ग्रंथ भी लिखा था, जो उनके बौद्ध दर्शन को स्पष्ट करता है।

6 दिसंबर 1956 को दिल्ली में उनका निधन हुआ। उन्हें ‘महापरिनिर्वाण दिवस’ के रूप में याद किया जाता है।

🕊️ अंबेडकर की विरासत और आज का भारत

डॉ. अंबेडकर की विरासत केवल संविधान तक सीमित नहीं है। वे एक समाज सुधारक, दार्शनिक, शिक्षाविद, और मानवतावादी थे।

उनके विचार आज भी दलितों, पिछड़ों, और वंचितों के अधिकारों की आवाज़ हैं।

1990 में उन्हें मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित किया गया। उनकी प्रतिमा संसद भवन से लेकर गांवों तक स्थापित है – हर जगह वह समानता और न्याय के प्रतीक हैं।


📌 निष्कर्ष: एक जीवन जो क्रांति बन गया

डॉ. अंबेडकर का जीवन इस बात का प्रमाण है कि यदि किसी के भीतर आत्मबल, शिक्षा और उद्देश्य की स्पष्टता हो, तो वह अकेले भी समाज की रचना, दिशा और गति को बदल सकता है।

✨ “मैं किसी समाज की प्रगति को उस समाज में महिलाओं द्वारा प्राप्त की गई प्रगति से मापता हूँ।” – डॉ. भीमराव अंबेडकर

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